21 January 2025 का दैनिक पंचांग / Aaj Ka Panchang: 21 जनवरी 2025 को माघ माह के कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि है। इस तिथि पर चित्रा नक्षत्र और धृति योग का संयोग रहेगा। दिन के शुभ मुहूर्त की बात करें तो मंगलवार को अभिजीत मुहूर्त 12:11 − 12:53 मिनट तक होगा। राहुकाल दोपहर 15:09 − 16:28 मिनट तक है। चंद्रमा कन्या राशि में संचरण करेंगे।
🌕🌞 श्री सर्वेश्वर पञ्चाङ्गम् 🌞 🌕
------------------------------------------------
🚩🔱 धर्मो रक्षति रक्षितः🔱 🚩
🌅पंचांग- 21.01.2025🌅
युगाब्द - 5125
संवत्सर - कालयुक्त
विक्रम संवत् -2081
शाक:- 1946
ऋतु- शिशिर __ उत्तरायण
मास - माघ _ कृष्ण पक्ष
वार - मंगलवार
तिथि_ सप्तमी 12:39:13
नक्षत्र चित्रा 23:35:40
योग धृति 27:48:13*
करण बव 12:39:13
करण बालव 25:59:48
माह (अमावस्यांत) पौष
माह (पूर्णिमांत) माघ
चन्द्र राशि - कन्या till 10:02
चन्द्र राशि - तुला from 10:02
सूर्य राशि - मकर
🚩🌺 आज विशेष 🌺🚩
✍️ श्री रामानन्दाचार्य जयंती
🍁 अग्रिम (आगामी पर्वोत्सव 🍁
🔅 षट्तिला एकादशी व्रत
. 25 जनवरी 2025
(शनिवार)
🔅 प्रदोष व्रत
. 27 जनवरी 2025
(सोमवार)
🔅 मौनी अमावस व्रत
. 29 जनवरी 2025
(बुधवार)
🕉️🚩 यतो धर्मस्ततो जयः🚩🕉️
कुंभ में कल्पवास करने वालों का मिट जाता है संपूर्ण रोग और शोक- -
कल्पवास का अर्थ होता है संगम के तट पर निवास कर वेदाध्ययन और ध्यान करना। प्रयाग कुम्भ मेले में कल्पवास का अत्यधिक महत्व माना गया है। कल्पवास पौष माह के 11वें दिन से माघ माह के 12वें दिन तक रहता है। कुछ लोग माघ पूर्णिमा तक कल्पवास करते हैं।
कल्पवास क्यों और कब से
प्राचीनकाल में तीर्थराज प्रयागराज में घना जंगल हुआ करता था। यहां सिर्फ भारद्वाज ऋषि का आश्रम ही हुआ करता था। भगवान ब्रह्मा ने यहां यज्ञ किया था। उस काल से लेकर अब तक ऋषियों की इस तपोभूमि पर कुंभ और माघ माह में साधुओं सहित गृहस्थों के लिए कल्पवास की परंपरा चली आ रही है।
ऋषि और मुनियों का तो संपूर्ण वर्ष ही कल्पवास रहता है, लेकिन उन्होंने गृहस्थों के लिए कल्पवास का विधान रखा। उनके अनुसार इस दौरान गृहस्थों को अल्पकाल के लिए शिक्षा और दीक्षा दी जाती थी।
कल्पवास के नियम
इस समय जो भी गृहस्थ कल्पवास का संकल्प लेकर आता है ऋषियों की या खुद की बनाई पर्ण कुटी में रहता है। इस दौरान दिन में एक ही बार भोजन किया जाता है तथा मानसिक रूप से धैर्य, अहिंसा और भक्तिभावपूर्ण रहा जाता है।
पद्म पुराण में इसका उल्लेख मिलता है कि संगम तट पर वास करने वाले को सदाचारी, शान्त मन वाला तथा जितेन्द्रिय होना चाहिए। कल्पवासी के मुख्य कार्य है:-
1.तप,
2.होम और
3.दान।
यहां झोपड़ियों (पर्ण कुटी) में रहने वालों की दिनचर्या सुबह गंगा-स्नान के बाद संध्यावंदन से प्रारंभ होती है और देर रात तक प्रवचन और भजन-कीर्तन जैसे आध्यात्मिक कार्यों के साथ समाप्त होती है। लाभ- ऐसी मान्यता है कि जो कल्पवास की प्रतिज्ञा करता है वह अगले जन्म में राजा के रूप में जन्म लेता है लेकिन जो मोक्ष की अभिलाषा लेकर कल्पवास करता है उसे अवश्य मोक्ष मिलता है।-मत्स्यपु 106/40
माघ माहात्म्य ...............
माघमासे गमिष्यन्ति गंगायमुनसंगमे।
ब्रह्माविष्णु महादेवरूद्रादित्यमरूद्गणा:।।
अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, रुद्र, आदित्य तथा मरूद्गण माघ मास में प्रयागराज के लिए यमुना के संगम पर गमन करते हैं।
प्रयागे माघमासे तुत्र्यहं स्नानस्य यद्रवेत्।
दशाश्वमेघसहस्त्रेण तत्फलं लभते भुवि।।
प्रयाग में माघ मास के अन्दर तीन बार स्नान करने से जो फल होता है वह फल पृथ्वी में दस हजार अश्वमेघ यज्ञ करने से भी प्राप्त नहीं होता है।
शताध्यायी में प्रयाग और त्रिवेणी की यश-गाथा.....
पुराण के पाताल खण्ड में समाहित प्रयाग माहात्म्य के सौ अध्याय ही शताध्यायी के नाम से विख्यात हैं।
प्रयाग की अन्तर्वेदी और बर्हिवेदी का जितना प्रमाणिक ज्ञान इस रचना में मिलता है उतना किसी और जगह नहीं। वस्तुत: इसी के आधार पर प्रयाग की पूरी महिमा गायी जाती है।
प्रयाग को तीर्थराज क्यों कहा जाता है इसका सटीक उत्तर शताध्यायी में मिलता है। तीर्थराज के विषय में ब्रंा के पुत्रों को जब उत्कट जिज्ञासा हुई तो वे पाताल चले गये क्योंकि शेषनाग ही वह रहस्य जानते थे। पातालपुरी का अद्भुत वर्णन पुराणकार ने किया है। सुवर्ण सिंहासन पर समासीन शेषनाग अनेक नाग-नागिनियों के बीच अपने हजार फनों से शोभित हो रहे थे। उन्होंने बहु नेत्रधारी अनंत को नमस्कार किया। उनकी जिज्ञासा के उत्तर में प्रयाग-महात्म्य में अद्वितीय वर्णन किया गया है। तीर्थो में प्रयाग श्रेष्ठतम है, यह उद्घोषणा वासुकि नाग की है। जिनकी समीपता मुझे भाग्य से मिल गयी। इसीलिए मैं मानों उन्हीं की कही हुई बात कह रहा हूं-
तीर्थ ही द्विविधं प्रोक्तं कामदं मोक्षदं तथा कामदं मोक्षदंनैव मोक्षदं कामदं न च।।
तत्रापि सर्व तीर्थानि तीर्थराजाज्ञया बिना। कामदाने मोक्षदाने समर्थानि भवन्ति न।।
(तीर्थ दो प्रकार के होते हैं, एक कामना पूर्ण करने वाले, दूसरे मुक्ति देने वाले। जिस तीर्थ में सब प्रकार की शक्ति-सामर्थय हो, सबके मनोरथों को पूरा कर सके तो एकमात्र प्रयागराज ही इस कसौटी पर खरा उतरता है।)
अथोच्यते तीर्थराज प्रयाग सर्वतोधिक:।
तस्य श्रृण्वन्तु माहात्म्यं मुनय: सनकादय:।।
(धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष सारे फल देने में समर्थ केवल प्रयाग ही है)
नवें अध्याय में अक्षयवट के समीप स्वयं शिव बड़े वेग से ताण्डव नृत्य द्वारा वेणी माधव को रिझाते हैं। ब्रह्म की यज्ञ सिद्धि के बाद जब माधव शिव के पास नाचते हुए जाते हैं तो देखते हैं कि शिव स्वयं माधव-माधव रह रहे हैं। त्रिदेवों की अद्वितीय एकता त्रिवेणी में ही संभव हुई।
वेदि-पूजन में कलश स्थापना का विवरण कुंभ-संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय लगता है। यद्यपि यहां अमृत का कोई प्रसंग नहीं है। कलश अक्षत हो यह अवश्य कहा गया है।
कलशं स्थापयेत् तत्र ताम्रव्रणमुक्तमम्।
माधव का आराधन करते हुए शिव अनेक स्थलों पर वर्णित हैं और दोनों के नृत्य का भी उल्लेख है। पांच योजन तक विस्तृत प्रयाग मण्डल में पैर रखते ही अश्वमेध का का फल पग-पग पर मिलने लगता है।
पंचयोजन विस्तीर्ण प्रयागस्य तुमण्डलम्।
प्रविष्टस्यैव तद् भूयावश्रमेध:-पदे-पदे।।
अकार: शरदा प्रोक्ता प्रद्युम्नस्तत्र देवता।
उकारो यमुना प्रोक्तानिरुद्धस्तज्जलात्मक:।।
मकरो जान्हवी गंगा तत्र संकर्षणो हरि।
एवं त्रिवेणी विख्याता वेदबीजं निरूपिता।।
पहली बार इस तरह की कल्पना मैने
देखी और मुग्ध हुआ, पुराणों की काव्यमयता पर। उधर वेद बीज ऊं तो इधर जलमयी त्रिवेणी का वेदोपम रूप। इसे मैं सच्चा माहात्म्य निरूपण मानता हूं जिसमें नयी कल्पना के साथ प्राचीन सांस्कृतिक गरिमा भी समाहित हैं।
शताध्यायी ने त्रिवेणी की त्रिगुणात्मिका रूप में कल्पना भी की है फलत: सरस्वती को शुक्लाम्बरधरा न कहकर अरुणवर्णा निरूपित किया गया है। व्रजभाषा में इसके अनेक प्रमाण हैं।
(1995 में प्रकाशित कुंभ दर्शन पुस्तक से साभार)
मकरे च दिवानाथे वृषगे च वृहस्पति, कुम्भ योगो भवेत्तत्र ह्र्तिदुर्लभ: ।।
१. कुम्भराशी पर वृहस्पति का और मेष राशि पर सूर्य का योग होने पर हरिद्वार में पूर्ण कुम्भ मेले का आयोजन होता है ।
२. वृष राशि पर वृहस्पति का योग होने पर प्रयागराज में पूर्ण कुम्भ मेले का आयोजन होता है ।
श्लोक अर्थ : वृष राशि में वृहस्पति हों और जिस दिन सूर्य नारायण मकर राशि में प्रवेश करते हो, उस दिन को कुम्भ योग कहते हैं। ऐसा योग प्रयाग के लिए अतिदुर्लभ होता है.
माघे वृषगते जीवे मकरे चंद्रभास्करौ ।
अमायां च ततौ योग: कुम्भाख्यस्तीर्थनायके: ।।
अर्थ : उस माघ मॉस में अमावस्या के दिन वृहस्पति वृष राशि में हों, सूर्य तथा चन्द्र मकर राशि में हों, तब कुम्भ योग समस्त तीर्थों के नायक (राजा) प्रयागराज में होता है । प्रयाग के कुम्भ योग के काल में त्रिवेणी में स्नान का भी महत्त्व बताया गया है । त्रिवेणी-स्नान का महत्व इस प्रकार बताया गया है -
प्रयागे माघमासे तु. त्र्यहं स्नानस्य यद्र्भवेत ।
नाश्व्मेघसहस्त्रेण तत्फलं लभते भुवि ।।
प्रयागराज में माघ मॉस में त्रिकाल (प्रात: मध्यान्ह और सायं) - में स्नान करने से जो फल मिलता है, वह फल पृथ्वी पर हजार अश्वमेध यज्ञ करने पर भी प्राप्त नहीं होता ।
अश्वमेघसह्स्त्राणि वाजपेययशतानी च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूमे: कुम्भस्नाने तत्फलम् ॥
सिंह राशि पर वृहस्पति का और मेष राशि पर सूर्य का योग होने पर उज्जैन में पूर्ण कुम्भ मेले का आयोजन होता है !
वृश्चिक राशि पर वृहस्पति का योग होने पर नासिक में पूर्ण कुम्भ का योग होता है जहां कुम्भ मेला लगता है !
जय जय श्री सीताराम👏
जय जय श्री ठाकुर जी की👏
(जानकारी अच्छी लगे तो अपने इष्ट मित्रों को जन हितार्थ अवश्य प्रेषित करें।)
ज्यो.पं.पवन भारद्वाज(मिश्रा)
व्याकरणज्योतिषाचार्य
पुजारी -श्री राधा गोपाल मंदिर
(जयपुर)