मुंबई, 28 अक्टूबर, (न्यूज़ हेल्पलाइन)। दिल्ली में वायु प्रदूषण को कम करने के प्रयास में मंगलवार को कृत्रिम वर्षा (क्लाउड सीडिंग) का दूसरा ट्रायल किया गया। इससे पहले 23 अक्टूबर को पहला परीक्षण हुआ था। दिवाली के बाद से राजधानी की हवा की गुणवत्ता लगातार गिरती जा रही है और एयर क्वालिटी इंडेक्स 'बेहद खराब' श्रेणी में बना हुआ है। इस बार कानपुर से ‘सेसना’ नामक विशेष विमान ने उड़ान भरी और खेकड़ा, बुराड़ी व मयूर विहार के आसमान में करीब छह हजार फीट की ऊंचाई से दोपहर दो बजे बादलों में केमिकल का छिड़काव किया। IIT कानपुर और दिल्ली सरकार ने बताया था कि इस प्रक्रिया के चार घंटे के भीतर बारिश हो सकती है, लेकिन शाम तक वर्षा नहीं हुई।
AAP नेता सौरभ भारद्वाज ने दिल्ली सरकार के इस ट्रायल का वीडियो जारी कर इसका मजाक उड़ाया। उन्होंने हंसते हुए कहा कि साढ़े चार बज चुके हैं और बारिश का नामोनिशान नहीं है। भारद्वाज ने तंज कसा कि “बारिश में भी फर्जीवाड़ा, कृत्रिम वर्षा कहीं दिख नहीं रही। शायद उन्होंने सोचा होगा इंद्र देव वर्षा करेंगे और सरकार दिखाएगी खर्चा।”
दिल्ली के पर्यावरण मंत्री हरमीत सिंह सिरसा ने बताया कि यह दूसरा परीक्षण करीब आधे घंटे तक चला। इस दौरान विमान से आठ फ्लेयर्स छोड़े गए, जिनका वजन दो से ढाई किलो के बीच था। बादलों में लगभग 15 से 20 प्रतिशत नमी मौजूद थी। प्रक्रिया के बाद विमान मेरठ में उतरा। मंत्री ने कहा कि मौसम अनुकूल रहा तो आज तीसरा ट्रायल भी किया जाएगा और आने वाले दिनों में विमान रोजाना 9 से 10 बार उड़ान भर सकता है। IIT कानपुर के विशेषज्ञों के मुताबिक क्लाउड सीडिंग के बाद 15 मिनट से चार घंटे के भीतर बारिश संभव होती है।
सरकार का उद्देश्य है कि सर्दियों के आने से पहले दिल्ली की वायु गुणवत्ता में सुधार किया जा सके। यह प्रयास एनवायरनमेंट एक्शन प्लान 2025 का हिस्सा है। इस ट्रायल से जुटाए गए आंकड़े भविष्य में बड़े पैमाने पर क्लाउड सीडिंग लागू करने में मदद करेंगे। भारत में इससे पहले भी कई राज्यों में क्लाउड सीडिंग की जा चुकी है। 1983 और 1987 में पहली बार इसका प्रयोग हुआ था। तमिलनाडु में 1993-94 के दौरान सूखे से निपटने के लिए यह प्रक्रिया अपनाई गई थी। 2003 में कर्नाटक सरकार ने भी क्लाउड सीडिंग करवाई थी, जबकि महाराष्ट्र में भी ऐसे प्रयोग किए जा चुके हैं। वैज्ञानिकों की एक स्टडी के अनुसार, महाराष्ट्र के सोलापुर में क्लाउड सीडिंग से औसत की तुलना में 18 प्रतिशत अधिक वर्षा दर्ज की गई। 2017 से 2019 के बीच किए गए इस अध्ययन में सिल्वर आयोडाइड और कैल्शियम क्लोराइड जैसे रासायनिक कणों का उपयोग किया गया था, जिन्हें रडार, विमान और आधुनिक वर्षामापी उपकरणों की मदद से मापा गया।